Thursday 1 August 2013

कुछ बातें

आप मानो या ना मानो
कुछ बातें होती तो है

आप बोलो या ना बोलो
आप चाहो या ना चाहो
ख़बरें लोगों तक
पोहोचती तो है

परिपूर्ण न हुआ तो क्या ?
समाज भी कुछ हम से
कुछ आप से ले कर
उभरता तो है

अहंकार, दुराभिमान
धर्म का, जात का
छूँ नहीं सकते लेकिन,
होता तो है !


- लक्ष्मीकांत




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© Laxmikant G. Bongale


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Thursday 13 June 2013

उदास शाम

एक शाम हमेशा उदास हुई चली आती है,
पता नहीं समंदर में डूबते सूरज की छबी,
क्यूँ उभार लाती है,
यादोँ की एक लहर हलके से उतरती है,
सारस पंछियोँ का झुंड मानो उतर आया हो,
किसी असीम जलाशय पर,
हवा भी चलती है तो,
रोम के किसी कथिड्रल का वास्तुशिल्प बनाती हुई...
और
बादलों की महीन गोलाईयोँ की रंगोली,
किन्ही सराहते हाथों से कोई बिखेर जाता है,
क्षितिज तक !
दूर दूर तक फैले खेतों की सीढीयाँ,
कोई रंगरेज़ सोने से मढा देता है...
किलकिलाती चिडियाँ अपनें चिलगोज़ों को जब सुलाने लगती है,
तब गूँज़ते सन्नाटे से
डर दिल में घर कर लेता है,
खालीपन की मार से मेरा वजूद तक हिल जाता है...
किसी महावृक्ष की जडे,
जब धरती निगल जाती होगी,
तब उसे भी येही एहसाँस होता होगा,
ऋतुओं के अनगित आयाम कितनें भी बदलते रहें,
पर
अंधेरी रातों में झरनों की लहलहाती चाल समझ नहीं पाते,
नाही उनसे जुडा चंचल सा दर्द...
बदलाव तो बाहर से होते है,
इसी लिये तो शिलाँयें,
भीगती है,
तपती है,
तिलमिलाती है,
अंदर ही अंदर घुट रही मूर्तीयोँ के अपार आक्रोश से
शायद तुम कुछ कर पाते
मुक्ती दिलाते हमें
सजग सनातन रात के तारे,
कुछ चमकते जुगनु,
कुछ टिमटिमाती किरने,
कुछ बूँदे
और
एक मोर का पर
तुम रख जाते,
मेरी डायरी के दो पन्नों के बीच...

सितार की तरफ़ें,
बोल देती तुम्हारा परदे को हलके से छू कर जाना...

और टटोलती तुम्हे,
तुम्हारे नाजुक से पाँव सेहला कर,
तुम्हारी और मेरी चमडे की जूतियाँ...

खिडकी से झाँकती टेहनियाँ
महक रही है
दूर किसी चरवाहे की बाँसुरी पर माँड की धुन...
बिल्कुल, बंगाल के उस माँझी की नाँव की तरह
लहराती चली आ रही है...

इस उदास शाम से ज्यादा,
मुझे
ज़रूरत है तुम्हारी,
काँपते हाथों को,
थरथराते लहू को कमी खलती है तुम्हारी
और
अब इन नैनों से तुम्हारे मोतियोँ का बोझ
सहा नहीं जाता...



- लक्ष्मीकांत




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एहसाँस

कुछ बातें अगर ज़ुबाँ से फ़िसल कर
होठों की सरहदें पार कर जाती है
तब कुछ सैलाब सा उबलने लगता है
कुछ हलचल सी उमड़ आती है

लुटानें के लिये इन लब्ज़ों के सिवा
हमारी कायनात में बचा क्या था ?
हम उजडी रयाँ में तरन्नुम गुन्गुनाते रहे
और बची नग्मा-ए-दौलत भी लुटाते रहे

हम नें तो नज़्मों को सींचा था
गुलिस्ताँ के ग़ुलाबों की तरह
वक्त नें धूप में उन्ही को
लौ सा जलना सिखा दिया

ग़मज़द दिल की आहों को, सिसकियों को
हम सदाओं मे तराशते रहे
देखते रहे उभरता हुआ
बंदा भी था, ख़ुदा भी था



- लक्ष्मीकांत




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